कुछ फ्लैश बैक
मैंने पिछली समीक्षा "सात खून माफ" पर लिखी थी और अभी "गांधी टू हिटलर" पर लिखने जा रहा हूँ। लेकिन एक सवाल बार बार मेरे मन में उठ रहा है कि सात खून माफ के बाद बीसियों फिल्में आईं, क्या उस पर बात नहीं होनी चाहिए... मेरा भी जवाब "हाँ क्यों नहीं बात होनी चाहिए" के रूप में ही आता है। फिर क्यों नहीं लिखा उन पर?
सच मानिए मैं लिखना भी चाहता हूँ लेकिन फिल्म को देखने के बाद मुझे यही लगता है कि सीन दर सीन का फिल्मांकन बस इसलिए किया गया है कि पिछली फिल्मों में ऐसा फिल्मांकन और प्रस्तुति पैसा और ताली बटोरने में पूरी तरह कामयाब रही है। ऐसे में उस पर बात-चीत करने के बजाय सीन दर सीन लागत और मुनाफे की बात करना कहीं जायज होगा जिसके लिए मैं या मेरे जैसा कोई कतई उपयुक्त नहीं होगा। इसके लिए मार्केटिंग वाले अच्छा काम करते है और जब से बॉलीवुड में कॉरपोरेट घरानों ने इंट्री ली है ये मार्केंटिंग वाले तथाकथित प्रोफेशनल और फेथफुल ढंग से काम करने लगे हैं... ऐसे में मैं करने की कोशिश भी करूँगा तो उनके लिए विश्वसनीय नहीं होगा। फिर मेरे लिए अच्छा यही होगा कि जो मैं देख समझ रहा हूँ उसी की बात करूँ।
बॉलीवुड में फिल्म बनने से जितनी मशहूरियत हासिल हुई है उससे कहीं अधिक मशहूरियत का कारण इसका कहकहा और तमाशा है... सलमान खान वांटेड, दबंग और रेडी जैसी सुपर डुपर हिट देने के बाद हिरोइज्म का राग अलाप रहे है और दर्शको को इसके लिए बधाई देते नहीं अघा रहे है कि मैं हिरोइज्म लेकर वापस आया और दर्शकों ने इसका जोरदार स्वागत किया। सिंघम के बाद अजय देवगन भी यही कह रहे है। रही सही कसर हमारे समीक्षक भी यह कह कर पूरा कर दे रहे है कि हिंदी सिनेमा के लिए यह बहुत अच्छा हुआ कि दर्शक जो सिनेमाघरों से दूर हो गए थे, और सस्ती (यहाँ वह अश्लील कहने में संकोच कर रहे हैं) भोजपुरी फिल्मों में बंध गए थे उन्हें सलमान खान ने अपने हिरोइज्म से आजाद कर दिया है... यहाँ पर यह सवाल बहुत ही स्वाभाविक और लाजिमी है कि क्या दर्शकों को सिनेमाघरों में लाने के लिए बॉलीवुड और सस्ती या भोजपुरी या क्षेत्रीय फिल्मों का हिंदी संस्करण प्रस्तुत करे... जवाब चाहे जो हो, हो यही रहा है...
हिंदी सिनेमा के पास कहीं ज्यादा पैसा है और वो इस पैसे का इस्तेमाल सस्ती (क्षेत्रीय ना दिखे) फिल्म से बचने के लिए साफ सुथरा और ग्रैंड सेट बनाकर, खूबसूरत विदेशी लोकेशन दिखाकर, दस-बीस की जगह पचास-सौ लड़कियों को नचवाकर, ज्यादा से ज्यादा गाड़ी तुड़वाकर और कहीं अधिक भव्य आइटम डालकर दर्शकों को सिनेमाघर में बुलाने की कवायद कर रहा है और ताली पीट रहा है कि दर्शक सिनेमाघरों में वापस आ रहे है। दर्शक की वापसी, उसका आना जाना बॉलीवुड का एक ऐसा झूठ कहकहा है कि जिसे इतना ज्यादा बोल दिया गया है कि सच जैसा लगने लगा है। लेकिन यह सच है नहीं। इस झूठे सच का शोर बस खुद को सेफ्टी जोन में रख कर अधिक मुनाफा कमाने और स्टार महास्टार बनने बनाने के गोरखधंधे जैसा है...
पिछले दिनों चर्चित युवा कथाकर चंदन यहाँ मुंबई में थे। चंदन सिनेमा में खासी दिलचस्पी रखते हैं और उन्होंने एक फिल्म लिखने के लिए अनुबंध भी किया है। उन्हें भी ऐसे कहकहों से कोफ्त है और ये बातें उन्हें इलॉजिक्ल लगती हैं। चंदन के साथ एक दिन क्रिटिकली क्लेम्ड राइटर और कई प्रसिद्ध फिल्मों के लेखक कमलेश पांडेय के यहाँ जाना हुआ... जाहिर सी बात है फिल्म के कई मुद्दो पर बात-चीत के साथ दर्शकों की वापसी और जाने की बात भी हुई। उन्होंने पूरे परिदृश्य को खँगालते हुए एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही। उनके अनुसार "फिल्मों में काम करने वालों में दस प्रतिशत ही जेनुइन लोग है जो एक अच्छी फिल्म बनाने के लिए अपना सब कुछ गँवाने के लिए तैयार हैं। बाकी के नब्बे प्रतिशत लोग पैसा और प्रसिद्धि के लिए काम कर रहे है। इनको इतना पैसा और प्रसिद्धि अगर हींग के व्यापार में मिलने लगे तो ये फिल्म बनाना छोड़ के हींग का व्यापार करने लगेंगे।" पूरे परिदृश्य पर इससे अच्छा व्यंग्य और क्या हो सकता है!
बहरहाल इधर हिरोइज्म और कई व्यावसायिक चलनों के बावजूद कुछ अच्छी फिल्में जरूर आईं जिनमें बच्चों पर आई चार फिल्में महत्वपूर्ण हैं। वे चार फिल्में हैं स्टैनली का डब्बा, चिल्लर पार्टी, बब्बलगम (bubblegum) और आई एम कलाम। इस पर कभी एक साथ और अलग से बात करूँगा। अभी गांधी टू हिटलर पर कुछ साझा करने के लिए बेचैन हूँ।
डियर फ्रेंड हिटलर
गांधी जी ने हिटलर को "डियर फ्रेंड हिटलर" संबोधित करते हुए द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दो पत्र लिखे थे। पहला पत्र 23 जुलाई 1939 को और दूसरा 24 दिसंबर 1940 को। दोनो पत्रों में गांधी जी ने हिटलर से मनावता को बचाने के लिए अपील किया है। गांधी जी की अपील को तो हिटलर ने अनसुना कर दिया जिसकी परिणति दुनिया को मालूम है और सभी जानते है कि गांधी की आइडियोलॉजी ने हिंदुस्तान को आजाद करने में सबसे अहम भूमिका अदा की थी। तब से ही गांधी और उनकी विचारों की महत्ता उनकी प्रासंगिकता पर बात होती रही है।
दुनिया भर में गांधी और उनकी आइडियोलॉजी पर अनेकों फिल्में बनी हैं और ऑस्कर भी पाई हैं। हमारे देश में भी गांधी और उनके विचारो को रेखांकित करती हुए कई बेहतरीन फिल्में बनी जिनमें कुछ महत्वपूर्ण हैं - "मैंने गांधी को नहीं मारा, लगे रहो मुन्ना भाई, मोहनदास आदि। सभी फिल्में गांधी को अपने तरीके से रेखांकित करती हैं लेकिन गांधी टू हिटलर सबसे अलग है और लीक से हटकर है। ऐसा इसलिए कि गांधी के विचार के समानांतर उनकी विरोधी विचारधारा को रख कर देखनी की कोशिश की गई है जो हमारे इतिहास का सबसे विश्वसनीय फैक्ट है और जिससे दुनिया अच्छे से वाकिफ है।
राकेश रंजन कुमार की यह पहली हिंदी फीचर फिल्म है। इस फिल्म में राकेश ने गांधी जी के उन्हीं दो पत्रों का रिफ्रेंस लेकर हिटलर की तनाशाही प्रवृत्ति से टकराने की कोशिश की है। यह फिल्म बॉयोग्रेफिक्ल जेनर की है लेकिन फिल्म में फिक्शन का इतनी खूबसूरती से और सूक्ष्मता से इस्तेमाल किया गया है कि आप साफ तौर पर ये नहीं कह सकते कि ये बॉयोग्राफिक्ल है, डॉक्यूड्रामा है या कोई फिक्शन। अपनी पहली फिल्म में ही राकेश ने अपनी निर्देशकीय प्रतिभा का परिचय दिया है।
सेकेंड वर्ल्ड वार की शुरुआत जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण के साथ होती है। फिल्म में इस आक्रमण को बेहद ही प्रभावशाली और प्रतीकात्मक तरीके से दिखाया गया है। पोलैंड के हरे-भरे लहलहाते खेतों के बीच एक किशोर लड़की हँसती दौड़ती चली आ रही है तभी उसे अचानक से गोली लग जाती है और वह वही ढेर हो जाती है। हालाँकि फिल्म में पोलैंड और जर्मनी सहित युद्ध में शामिल कई देशों के ध्वंश के कई फुटेज दिखाए गए है लेकिन लड़की का ढेर होना आक्रमण की जिस भयावहता को दर्शाता है वो उन लहूलुहान फुटेज पर कहीं भारी पड़ता है। यहाँ लड़की का ढेर होना बस एक लड़की का ढेर होना नहीं रह जाता है इससे साफ स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध से अनजान निश्चल हँसी के साथ मानवता कैसे ढेर हो रही है।
फिल्म आगे बढ़ती है और गांधी जी हिटलर को डियर फ्रेंड हिटलर संबोधित करते हुए पत्र लिखते है। हिटलर को डियर फ्रेंड कहने में उनका मानना है कि वे ऐसा औपचारिक तौर पर नहीं कह रहे है। पहले तो उनका कोई शत्रु नहीं है और दूसरी बात कि उनका पिछला तैतीस साल भिन्न भिन्न मतों और रंगों के बीच पूरे संसार में मानवता के लिए 'फ्रेंडशिप' बनाने में लगा रहा है। उन्हें हिटलर के साहस और उसके अपने देश के प्रति देशभक्ति पर कोई संदेह नहीं है। वे यहाँ तक मानते है कि "इस समय पूरी दुनिया में एक आप ही (हिटलर) ऐसे व्यक्ति है जो मानवता को बचा सकते हैं"। इसलिए हिटलर की प्रवृत्ति को अप्राकृतिक बताते हुए युद्ध को रोकने की बात करते है। और कहते हैं कि हमने कभी अंग्रेजों को हराने के लिए नहीं लड़ा है। हमें युद्ध क्षेत्र में उन्हें हराकर उन पर काबिज होना नहीं है। हम उनके दिल पर काबिज होना चाहते हैं। हमारा विश्वास हृदय परिवर्तन में है। हृदय परिवर्तन की बात हिटलर की समझ से परे है। और इसका यही अविश्वास उसे डुबो देता है।
उनके दोनों पत्र को पूरे फिल्म में छोटे-छोटे कट्स के रूप में इस्तेमाल किया गया है इससे राकेश का निर्देशकीय कौशल उजागर होता है। और यही वो बिंदु है जहाँ राकेश फिल्म कहने की एक नई भाषा गढ़ते हैं। ये कट्स फिल्म को आगे बढ़ाने में जितनी मदद करते हैं उतना ही हिटलर के ध्वंस होते सम्राज्य के बरक्स गांधी के कर्म और विचारों को स्थापित करते हैं।
फिल्म में हिटलर के साथ सुभाष चंद्र बोस को भी रखा गया है। ऐसा इसलिए कि सुभाष चंद्र बोस ने 1939 में ही फॉर्वड ब्लॉक की स्थापना कि थी और उनका भी मानना था कि बिना खून दिए आजादी नहीं मिलने वाली है। इसीलिए आजाद हिंद फौज के सैनिक को अंग्रेज के खिलाफ लड़ने के लिए जर्मनी भेजते हैं। फिल्म में इस पक्ष को बहुत ही नाजुकता के साथ फिल्माया गया है।
भारतीय सैनिकों के साथ गांधी का साथ देने वाली अमृता (लकी वखारी) का पति (अमन वर्मा) भी जर्मनी का साथ देने के लिए गया हुआ है। शुरू में उसे लगता है कि वो अपने देश के लिए लड़ रहा है। लेकिन बाद में युद्ध में मासूमों की हत्या, स्त्रियों के बलात्कार और जर्मनी की हिलती जड़ों से उसे अभास होने लगता है कि वो कहीं भटक गया है। युद्ध स्थल से ही अमृता को वह पत्र लिखता है। शुरू में तो पत्र अमृता के पास पहुँच जाते हैं लेकिन जब अमन को गोली लगती है उसके बाद से पत्र उसी के पास रहते हैं। फिर भी वह पत्र लिखता रहता है। इधर अमृता उसके इंतजार में है और वो भी अपनी पत्नी और बच्चों से मिलने के लिए बेताब है। इंतजार और मिलने की यह छटपटाहट और उसका फिल्मांकन युद्ध के बीच मनुष्य के अस्तित्व, उसके प्रेम, उसकी पहचान और उसकी भावनाओं को अच्छे से दर्शाता है। आखिर में अमन किसी तरह से अपने साथियों को युद्ध से वापस लाना चाहता है। लेकिन युद्ध से वापस आना इतना आसान नहीं होता। अमन सहित सारे सैनिक मारे जाते है।
फिल्म जब अंत की तरफ बढ़ती है तो हिटलर का साथ देने वाले साथ छोड़ने लगते हैं। उसके आस पास अविश्वास की लकीरें उभरने लगती है। उसका पूरा महकमा अपने को बचाने में लग जाता है। ऐसे में हिटलर की बेचैनी अपने चरम पर होती है और वो अपनी बात ना मानने वाले को खत्म करना शुरू कर देता है। इस माहौल में भी हिटलर की प्रेमिका इवा ब्राउन (नेहा धुपिया) उससे एक पल के लिए भी अलग नहीं होती। इवा ब्राउन की प्रतिबद्धता की वजह से ही गोबेल्स और उसका पूरा परिवार हिटलर के साथ अपनी आहुति देना ही सही समझता है। लेकिन हिटलर ऐसा करने के लिए किसी पर दबाव नहीं डालता वो उन्हें एक गुप्त रास्ते के माध्यम से सुरक्षित जगह पर भेजना चाहता है फिर भी कोई जाने के लिए तैयार नहीं होता।
अंत में हिटलर इवा से कहता है कि जानती हो मैंने तुमसे अब तक क्यों नहीं शादी की थी क्योंकि मैंने अपनी शादी अपने देश के साथ कर ली थी। मैं तुम्हें दूसरी पत्नी के रूप में नहीं रख सकता। अपने मरने के दिन हिटलर इवा से शादी करता है। शादी और हिटलर के साथ इवा और उसके शुभचिंतको के मरने का दृश्य पूरी तानाशाही प्रवृत्ति को हिला के रख देता है। एक तरफ हिटलर की आइडियोलॉजी जर्मनी जैसे मजबूत देश को डुबो देती है वही गांधी की आइडियोलॉजी वर्षो से गुलामी में जकड़े हिंदुस्तान की आजादी का सबब बनती है। फिल्म का अंत नेहरू द्वारा भारत की आजादी की घोषणा के साथ हो जाता है। और यह घोषणा गांधी के आइडियोलॉजी को भी स्थापित कर देती है।
फिल्म में हिटलर के आखिरी दिनों के जीवन में भावनाओं को खास तवज्जो दी गई है। शायद इसीलिए ब्रिटिश मीडिया ने फिल्म पर हिटलर के व्यक्तित्व को ग्लोरिफाई और इतिहास का गलत इस्तेमाल करने का आरोप लगया है। लेकिन इस फिल्म के प्रोड्यूसर डॉक्टर अनिल कुमार शर्मा इसे नकारते हुए कहते है - "we clarified that the movie is not about hitlar's ideology, but how his ideology of violence conflicts Gandhi 's ideology of peace there is no glorification of hitler 's character" (the times of india)
हिटलर की भूमिका में रघुवीर यादव ने बेहतरीन काम किया है। रघुवीर ने हिटलर के चरित्र को इतना आत्मसात किया था कि हिंदी बोलता हुआ हिटलर कहीं से असहज नहीं करता है। इवा ब्राउन की भूमिका में नेहा ने भी सराहनीय भूमिका निभाई है। गांधी की भूमिका अभिजीत दत ने की है। अभिजीत के लिए इसमें करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था यही बात सुभाष चंद्र बोस के किरादर के साथ भी सही है जिसकी भूमिका भुपेश कुमार पांडेय ने की है। अमन वर्मा और लकी वखारी ने अपने चरित्रों के साथ अच्छा काम किया है।
फिल्म का सबसे खराब पक्ष इसके गीत हैं। इतना सेंसटिव मुद्दा लेने के बाद दोनों गीत लाउड होकर रह जाते है। दरअसल इस कमी के पीछे दो बातें हैं। पहला उस पूर्वाग्रह का संशय है जिसके अनुसार रियल्सिटिक सिनेमा में गीतों का इस्तेमाल उसकी धार को कुंद करता है और दूसरा हिंदी सिनेमा का वह दबाव जिसमें दर्शक बिना गीत के कुछ पसंद नहीं करता। शायद यही वजह रही होगी कि राकेश ने गीत डालते हुए उतने गंभीर नहीं रहे। उन्हें इन दबावों से उबर कर सोचना चाहिए था। गीत डालने में संकोच कैसा? हिंदी सिनेमा पर मोटी नजर भी डाली जाय तो यह बात साफ हो जाती है कि कई फिल्मी गीतों की वजह से फिल्म का कथ्य और मजबूत हुआ है। उसके फिल्माकंन से एक अलग धार मिली है जिससे उसका प्रभाव कही और सटीक हुआ है। यहाँ मैं यह कहने में थोड़ा भी संकोच नहीं करूँगा कि अगर दुनिया के सिनेमा में हिंदी सिनेमा के योगदान की बात की जाय तो सबसे पहले हिंदी सिनेमा के गीतों को ही रेखांकित किया जाएगा।
राकेश रंजन कुमार बधाई के पात्र है। उन्होंने दो बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं और दो बड़ी आइडियोलॉजी को एक कैनवास पर रखकर उनकी टकराहट और उसके प्रतिफल को इतनी सहजता से पेश किया है। इसके लिए इस फिल्म के एडिटर श्री नारायण सिंह और सिनेमेटोग्रॉफर फौद खान भी बधाई के पात्र हैं।